सोमवार, 23 जनवरी 2012

घायल गलियों से




कभी हुए थे ज़मीन के दो टुकड़े,
दिल पे दरार अभी भी नजर आती है,
खिची थी सरहदे ज़मी पर,
दिलों पर दीवार अब भी नजर आती हैं,

कैसे मासूम कुचले गए थे तब,
लफ्जों में कराह अब भी सुनाई देती है,
घर बटने पर फटे थे जो सर,
उनकी गूँज अब भी सुनाई देती है, 

ये कैसा था बटवारा? कैसी थी रुसवाई?
एक रात में, ये कैसी शामत आई,
साथ - साथ बैठते और खेलते थे जो भाई,
एक दूजे का लहू पीने की प्यास जगाई,

जब पड़ी थी पैरों में बेड़िया,
दिल्ली ही नहीं, लाहौर ने भी झेली थी गोलियां,
एक  दूजे से कंधा मिला कर,
सभी ने दी थी कुर्बानियां.

एक दूजे को मारने और काटने को खड़े हैं दो भाई,
एक दूजे के लिए जिन्होंने, तब गोलियां खाई,
ये कैसा है खेल, कैसी है नादानी,
ये किसने हैं, इनके दिलों पे ऐसी सेंध लगाई,

दोनों भाइयों की इस दुश्मनी से,
क्या हुआ है हासिल हमसब को,
अपने भाइयों की रोटी छीन कर,
गोले बारूद खरीदते हैं हम सब,

करते हैं लहू लुहान अपनी ही माँ को,
काटते हैं गला अपने ही भाई और बहन का,
अपने ही दमन पे यूँ जख्म देने की,
कैसी है ये परंपरा, किसने है चलाई...

आज भी माँ आंसू बहाती है,
दोनों बेटों के दर्द में कराहती है,
अपने सीने में जख्म भर कर,
हम  सभी को यूँ पुकारती है, 
कब तक एक- दूजे को मारते और काटते रहोगे,
कब तक अपने भाइयों का लहू पीते रहोगे,
चंद स्वार्थी लोगों के बहकावे में आकर,
कब तक यूँ, अपनी माँ को कुचलते रहोगे,

लहू से सनी इन घायल गलियों के,
करवट बदलने की आवाज सुनाई देती है,
मुझे तो, समां बदलने की उम्मीद दिखाई देती है
कहीं दूर से आरही शांति की आहट सुनाई देती है,

सुधीर कुमार शुक्ल " तेजस्वी"

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