धन्नो कोयला देख..देख कर हिनहिनाती रही!!




प्रिय मित्रो!

यह कहानी आजके राजनीतिक परवेश को प्रस्तुत करती एक हास्य-व्यंग है, इन मासूम ग्रामीण लोगों पर सरकार के रवय्ये का कैसा असर पड़ता है, वो अपनी मासूम सोच के साथ, परिस्थितियों की कैसी चर्चा करते हैं, कैसी प्रतिक्रिया करते हैं, ...इससे भी बढ़कर ये आजकी राजनीतिक सोच पर एक कटाक्ष्य है...

मौसी धूप से तप कर, थकी हुई, गिरते पड़ते आईं, और चिल्लाकर कहने लगी..पानी तो देदो एक लोटा गला सूख रहा है, गर्मी बहुत बढ़ गई है, बसंती: पानी नहीं है, बीरू नहीं ले आया, बोलता है इतने दूर नहीं जायेगा इतनी गर्मी में, और मैं तो जा नहीं सकती, वहां रास्ते में सांभा नंगा नाच रहा है, और जो मना करो तो बोलता है, अब बिना नंगे रहे गुजारा नहीं है, जो जितना बड़ा नंगा होता है वो उतना ही बड़ा आदमी कहलाता है, मौसी ! एक बात बताओ, हम सुन रहे हैं की जय दिल्ली जाने को बोल रहा है, वो कहता है की वहां खाने को बहुत कुछ मिलता है, तो यहाँ रूखा -सूखा कौन खाए, मौसी देशी पंखे से हवा करते हुए बोली, हम तो सुनते हैं कि शहर में बड़े लोग सबकुछ खाते हैं, पहले चारा खाया, खाद खाया, पैसा खाया, तोप-गोला खाया, गाड़ी- मोटर खाया, और तो और अब तो बोलते हैं कि इतनी खोज हो गई है कि नेता लोग कोयला तक खाने लगे हैं, बसंती ! ये बताओ, उसे क्या बोलते हैं जिससे दूर से बात हो जाती है? बसंती: दूर से मतलब? अरे जैसे हम रामपुर में हैं तो दिल्ली में बात हो जाये. बसंती: अच्छा..अच्छा दिल्ली! अरे मौसी दिल्ली में तो सिर्फ पैसे से बात होती है, मौसी: अरे नहीं कान में कुछ लगते हैं बेलन की तरह और हल्ल-हल्ल करते हैं, बसंती: अच्छा..अच्छा....तुम मोबाइल की बात कर रही हो? मौसी: हाँ वही नासमिटा मोबिआइल, कहते हैं कि दो मोबिआइल के बीच में जो तार जाती है बात करने के लिए, एक सत्यानाशी नेता उसे भी खा गया..बसंती: हाँ कहते तो यही है, मौसी: नासमिटे कैसे लोग होंगे जो कुछ भी नहीं छोड़ते हमारे गले से तो रोटी का एक सूखा टुकड़ा भी नहीं उतरता. बसंती: अरे मौसी! वो बड़े लोग हैं, उनकी बराबरी हम थोड़ी कर सकते हैं, वो राजा लोग हैं कुछ भी कर सकते हैं. मौसी: कहते हैं कि राजा तो आजकल गब्बर हैं, उसी समय खान चाचा उसी ओर आते हए बोलते हैं, अरे दाढ़ी रखने से कोई गब्बर नहीं बनजाता, ये तो नाम का गब्बर है, एक हमारी खला के ज़माने में गब्बर हुआ करता था, वो बताया करती थी कि उसके दहाड़ने से पचास कोस दूर तक गाँव में बच्चे नहीं रोते थे, और एक ये गब्बर है, इसके भुनभुनाने से उसके मुहं कि मक्खी तक नहीं उड़ती. तभी बात काट कर मौसी बोली: हम तो सुनते हैं कि एक फिरंगी बहू आई थी, अब वो सबकी अम्मा बन गई है, उसके सामने किसी गब्बर-वब्बर कि नहीं चलती, सबको अपने पल्लू में बाधे घूमती है, और हम तो यहाँ तक सुने हैं कि वो अपने मायके जाने वाली है और सब राज -पाट बेचने कि फिराक में हैं...इतना कहते ..कहते ..मौसी भूख प्यास से थरथराकर गिर गई..
उसी समय बीरू, हांफता, घबराता आता है, मौसी..मौसी...गजब हो गया..गजब हो गया...बसंती: क्यों इतना चीख रहे हो? मौसी को चक्कर आगया है...बीरू: अरे रामू काका ( अन्ना जी) जो अनशन में बैठे थे ना आज दश दिन हो गए..गब्बर उनकी बात ही नहीं मानता, बोलता है जबतक रामू काका ठाकुर साहब ( आम जनता) को सौंचाना बंद नहीं करेंगे तब तक वो कुर्सी नहीं छोड़ेगा. बसंती गुस्से से आग बबूला होकर बोली: अरे वो गब्बर पूरी तरह से अँधा है क्या...उसको दीखता नहीं है कि ठाकुर के बिचारे के हाँथ ही नहीं हैं, तो कैसे सौंचेगे..दोनों हाथ तो इन गब्बर लोगों ( राजनेताओं) को काट कर दे दिए हैं, कि वो लोग शासन करें, और ये नासमिटे राजपाट पते ही डाकू बन गए..लूटने- छीनने लगे..खान चाचा: अरे बिटिया ! तुम क्यों परेशान होती हो, ठाकुर साहब बड़े दानी थे, और इन विश्वासघातियों पर विश्वास किया..साठ-बासठ साल होगये..हर एक पांच साल में एक-एक ऊँगली काट कर इन नेताओं को देते गए, कि ये हम लोगों का ध्यान रखेंगे, देश का सोचेंगे, पर क्या बताऊँ बेटी जिसको भी अपनी ऊँगली (वोट) दिए वही गब्बर बन गया, और यही करते -करते अपने दोनों हाथ गवां बैठे..अब तो पैर की दो उँगलियाँ भी कट चुकी हैं, बेचारे उठ पते हैं अपना कुछ काम करपाते हैं, बीरू: ठाकुर जी तो बहुत मूर्ख थे लगता है, इतने साल तक कैसे अपना हाथ काट के इन सत्यानाशी लोगों को देते रहे, खान चाचा: तुम सही बोलते हो बेटा, अब पछता रहे हैं, क्या करें अब तो रामू के भरोसे ही सब कुछ है, ठाकुर साहब की इज्जत भी और, हम सबका पेट भी..नहीं तो ये गब्बर लोग किसी को नहीं छोड़ेंगे...हम लोग का खून पी-पी कर ..मोटे हो रहे हैं.

उसी समय जोर से चलाने कि आवाज आती है, सब उठकर देखने लगते हैं, कालिया रिक्शे में बैठा चिल्ला- चिल्ला कर बोल रहा है...सरकार कि तरफ से मुफ्त में मोबाइल दिया जाता है...अब कोई भी गरीब नहीं रहेगा...सबके पास मोबाइल होगा...गाँव के सब लोग वहा भीड़ लगा लेते हैं, बहुत खीच-तान के बाद बसंती भी एक मोबाइल झपटने में कामयाब हो जाती है, सब बड़े खुश लग रहे हैं, चलो सरकार ने हमारी कुछ तो सुध की, खाने-पीने को तो नहीं है, पर अपने लोगों से बात करने को तो मिलेगा, तभी खान चाचा अपने घर से पानी लाकर दो चुल्लू पानी मौसी के मुंह में डालते हैं,गले के भीतर पानी जाते ही मौसी उठ बैठीं, मोबाइल देख कर चील्लाने लगी, ये गब्बर बिलकुल अँधा हो गया है क्या..यहाँ हमारे खाने के लाले पड़े हैं, और वो मजाक कर रहा है, मोबिआइल भेजा है, ये नहीं कि दो समय कि रोटी कि व्यवस्था करे, अब इस नासमिटे मोबिआइल का अचार रखेंगे क्या. दूसरी ओर जय पीठ में कोयले कि एक बोरी लादे पसीने में लथपथ पहुँचता है, मौसी..मौसी...मैं कोयला लाया हूँ...क्या करूगी इसका ? मौसी खिसिया कर बोली, जय: अरे वहां शहर में इसकी लूट मची थी तो मैंने सोचा लगे हाथ मैं भी लेता चलूँ कुछ काम ही देगा, शायद धन्नो खा ले, कई दिनों से चारा नहीं मिला, मौसी : कहाँ से मिले चारा वो तो एक गब्बर खा गया था..जय: हाँ देखते हैं शायद ये खा ले..यही कहते धन्नो के सामने कोयले कि बोरी खोल देता है..तभी जोर से धडाम कि आवाज सुनाई देती है, सबलोग दौड़ कर अन्दर जाते हैं, बसंती जमीन में बेहोश पड़ी है, चारो तरफ धुआं छाया है..लगता है...बसंती ने ज्यादा दिमाग लगा दिया; जब नेता मोबाइल की तार खा लेते हैं तो हम मोबाइल को कूट-पीस कर क्यों नहीं खा सकते, कई दिनों से खाने के लिए भी कुछ नहीं था, और मोबाइल कूटते ही फट गया और बसंती का चेहरा काला पड़गया हैं, कुछ जल भी गया है, बीरू दौड़ता आता है और बसंती को उठाकर वैद्य जी के यहाँ लेजाता है..

दरवाजे पर धन्नो कोयला को देख..देख कर..हिनहिनाती रही...पर कोयले कि एक धेली भी नहीं खाई....धन्नो एक पशु शायद इसी लिए उसे इतना पता है कि क्या खाना चाहिए क्या नहीं!!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें