बुधवार, 23 मई 2012

जब बेरंग चेहरों को देखता हूँ





जब  बेरंग  चेहरों को देखता हूँ,
तो बरबस ही जिंदगी को कोसता हूँ,
हर सांस में जिंदगी को मरते देखता हूँ, 
तो बरबस ही जिंदगी को कोसता हूँ,

निश्तेज आँखों  में, कटीली राहों में,
सपनो को झुलसते देखता हूँ,
भूखों को तड़पते देखता हूँ,
तो बरबस ही जिन्दगी को कोसता हूँ,

नदी  को पानी के लिए तड़पते देखता हूँ,
बादल से अंगारे बरसते देखता हूँ,
समीर को निरीह जब देखता हूँ,
तो बरबस ही जिन्दगी को कोसता हूँ,

ऐसा नहीं है की रोटी या फिर धोती नहीं है,
जब किसी की रोटी, किसी की धोती,
किसी और के बैंक में सड़ते देखता हूँ,
तो बरबस ही जिन्दगी को कोसता हूँ,

प्रकृति और मानव को बदलते देखता हूँ,
किसी की ख़ुशी बेचते देखता हूँ,
किसी के आंसुओं में जलक्रीडा करते देखता हूँ, 
तो बरबस ही जिन्दगी को कोसता हूँ,

मशाल तो जलते हैं जलते रहेंगे,
कही पे उजाले कही अँधेरे रहेंगे,
जब तेल की जगह लहू जलते देखता हूँ,
तो बरबस ही जिन्दगी को कोसता हूँ,

मंगलवार, 15 मई 2012

ए. राजा की बारात


माननीय पूर्व मंत्री जी ए. राजा. को अदालत से मिली जमानत के उपलक्ष में स्वागत गीत 


राजा की आई है बारात, 
पन्द्रह महीनो बाद, 
२ जी स्कैम के साथ, 
मगन मैं नाचूंगी-२ 

लालू भी आये, रावड़ी को लाये,
चारा खाके, बच्चे बनाये,
कलमाड़ी हैं घुड़ सवार,
करोड़ों की है एक चाल,
मगन मैं नाचूंगी-२ 

कोड़ा भी आये, फोड़ा हैं लाये,
अपने राज्य की लंका ढाए,
कनिमोड़ी करे झंकार,
पैसे की भरमार,
मगन मैं नाचूंगी-२ 

शिबू शोरेन हैं इनके पापा,
कैसे सजे हैं सुखराम दादा,
खाते हैं सारे दाम,
न लेते ये डकार,
मगन मैं नाचूंगी-२ 

मनमोहन की आँखों में पट्टी बधी है,
सोनिया बैठी सर पे आज,
राहुल को लिए साथ,
बेचेगी सबको आज,
मगन मैं नाचूंगी- २ 

खाते हैं ये सब कितना खाना,
देश बेच दे कौड़ी आना,
नहीं गरीबों की दरकार,
है भेड़ियों की सरकार,
मगन मैं नाचूंगी- २ 

रविवार, 13 मई 2012

बचपन मेरा किसने छीना




तन था नाजुक कोमल मन था,
काँटों ने तब आके घेरा,
अपनों ने ही जख्म दिए,
ख़ामोशी ने आके यूँ घेरा,

अपनी, अपनी हवास के खातिर,
नन्हे तन को सबने खाया,
मन पर ऐसा घाव दिया जो,
जीवन भर भी न भर पाया,

अपनी ओछी हवस के खातिर.
बचपन मेरा किसने छीना,
करूँ भरोसा किस पर अब मैं,
सबने है विश्वास यूँ तोड़ा,

मृत शरीर नहीं छोड़ते,
नर पिशाच वो बन कर आते,
रिश्तों की परदे में छुपकर,
मेरा शोषण वो कर जाते,

चुप थी ममता, पिता भी चुप थे,
किसी ने मेरा दर्द न जाना,
एक बच्चे के कोमल मन पर,
कैसा था आघात वो आया,

शुक्रवार, 11 मई 2012

रति सा श्रृंगार किये आई एक फुहार है



रुपहले से दामन में,
शशि का सरताज है,
चीर मधुबन पे जैसे,
अद्भुत रंगराज  है,

सरोज भी कुंठित है,
नैनों के दीदार से,
चकोर भी है विस्मित,
उगा नूतन चाँद है,

चंचल तरंगो में,
उनका ही राग है,
शावक  की चपलता,
फीकी क्यों आज है,

ऋतुये हैं आज मिली,
छितिज भी अब पास है,
सागर से नदी मिली,
भौंरे को प्यास है,

रति सा श्रृंगार किये,
आई एक फुहार है,
अधरों में जीवन लिए,
नैनो में प्यार है,

गुरुवार, 10 मई 2012

जमीन में दफ़न हूँ मैं



आज बैठा हूँ, सुरंग के पत्थर की तरह,
दबा हूँ, गरीब के लफ्जों की तरह,
दिल में कितने जख्म हैं, फिर भी,
चुप हूँ, किसी जनाजे की तरह,

सिर हिलाता हूँ, तो ठोकर लगती है, 
सिर उठाता हूँ, तो सिर कटता है,
साँसों की आवाज, भी दबा ली मैंने,
आँखों को पलकों में, छुपा ली मैंने,

सिसकियों की आहट न सुन ले कोई,
नाक भी आज, दबा ली मैंने,
कोई न खोज ले मुझको, उंजाले में कहीं,
छुपा हूँ, घोर अँधेरे में इसी लिए,

कितने ही आते हैं, यूँ ही रौंद कर चले जाते हैं,
कोई न पूछता, मेरी मुफलिसी की वजह,
तिल -तिल कर, मेरा जिस्म घिसता है,
लहू तो है नहीं फिर किसे फर्क पड़ता है,

एक पल रुक कर मेरा हाल तो जानो,
सूरज की धूप को तरसता हूँ,
पानी की एक बूँद को तरसता हूँ,
प्यार के दो बोल को तरसता हूँ,

गिर गया तो, तुम सब दब जाओगे,
अपना रास्ता न, फिर ढूंढ पाओगे,
उठ जाऊं तो, राह रुक जाएगी,
श्रष्टि की चाल,  ठहर जाएगी,

इसी लिए गुमनाम जी रहा हूँ,
शिव की तरह विष पी रहा हूँ,
ताकि तुम सब, यूँ ही जीते रहो,
विकास पथ पे यूँ ही चलते रहो,

पर मान लो मेरा एक कहना,
मेरे अस्तित्व को, न मिटने देना,
मैं नहीं तो समय भी, रुक जायेगा,
सबकुछ, वीराना हो जायेगा,

मेरा नाम तो शिव नहीं है,
पर मेरा काम, इतना कठिन है,
शिव भी इसे न करपाते,
जीवन भर वो भी न गड़ पाते,

मैं नहीं, तो तुम नहीं होगे,
ये महल, ये सड़क नहीं होंगे,
मुझे कहो एक मजदूर,
या, समझ लो एक पत्थर,

मर कर तो सब शहीद होतें हैं,
जीते जी शहीद हूँ मैं,
तुम यूँ ही, चलते और बढ़ते रहो,
इसीलिए, जमीन में दफ़न हूँ मैं,

सोमवार, 7 मई 2012

मैं मैली हूँ




मैं मैली हूँ इस लिए चारो तरफ फैली हूँ,
स्वच्छ होती तो न बिखरने देता कोई,
पैरों के नीचे यूँ ही न मसलता कोई 
सड़क में फ़ैल कर न सिसकने देता कोई,

ये चक्र है समय का, नसीब का और कर्त्तव्य का,
कभी मैं भी बाग़ में सवरती थी, 
शबनमी ओस संग रोज चहकती थी,
हर रात चाँद संग अठखेलियाँ करती थी, 

सूरज की धूप आके जगती थी मुझको,
कोयल रोज संगीत सुनती थी मुझको,
माली आकर मेरी जुल्फें सवारता था,
नहलाकर मेरा श्रृंगार करता था,

मेरे दामन से जब खुशबू आती थी,
सब  की आखों में आस  दे  जाती थी,
सब धरती माँ पुकारते थे मुझे,
क्योंकि मैं जीवन देती थी,

आज भी  मैं वही हूँ किन्तु पैरों तले गाड़ी हूँ,
रास्ता जो भटक गई थी,
बाग़ से सड़क पर आगई थी,
अपनी जड़, अपनी पहचान खो गई थी,

नहीं था जीवन श्रोत मुझमे,
नहीं था किसी को प्यार मुझसे,
सोंधी खुशबू, सड़ांध में में बदल गई थी,
मिट्टी अब कीचड़ बन गई थी, 

                                   -डॉ सुधीर कुमार शुक्ल "तेजस्वी"