भाषा का दमन: विदेशियों की एक सोची समझी चाल


प्रिय मित्रों !!
आज मैं एक ऐसे मुद्दे पर प्रकाश डालने की कोशिश करूंगा जो बहुत ही  गंभीर है और जिसमे हमारा अस्तित्व और विकास निहित है!

भाषा के द्वारा हम अपने विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं, विचारों का संचय करते हैं, उसका प्रसार करते हैं, संग्रहित विचार ही साहित्य होते हैं, और साहित्य को समाज का दर्पण भी कहा गया है, अर्थात किसी समय का समाज कैसा था, लोगों की जीवन शैली कैसी थी, संस्कृति कैसी थी ये सब जानकारियां साहित्य में  संगृहित रहती है. अब साहित्य के उपयोग के बारे में बात करते हैं; साहित्य हमारे लिए मार्गदर्शक का काम करता है, जैसे अतीत काल में कोई शोध हुआ या विकास हुआ या अन्य कोई भी कार्य उसकी संपूर्ण जानकारी उस काल के साहित्य में संग्रहित होती है,

अब हमारा प्राचीन साहित्य जिस भाषा में संगृहित है वो है संस्कृत, हम सब को ये पता है की अतीतकाल में हम कितने विकसित और समर्द्ध थे, हमे "विश्व गुरु" और " सोने की चिड़िया" कहा जाता था, तब हमारे धन पर विदेशियों की नजर पड़ी कईयों ने आक्रमण किया, कईयों ने कुटिलता से अधिकार ज़माने का प्रयत्न किया. इन आक्रमणकारियों ने जैसे जैसे भारत में अधिपत्य करना शुरू किया इन्हें भारत के समृद्ध साहित्य का पता चला, क्योंकि ये भारत का शोषण करना चाहते थे इसलिए इन्हें कुछ ऐसा करना था की भारत  दुबारा उठकर खड़ा न हो सके.
इन विदेशियों ने एक योजना के तहत भारत की देव भाषा कही जाने वाली संस्कृत का दमन करना शुरू किया, देव भाषा का एक अर्थ बुद्धिजीयों की भाषा या शिक्षितों की भाषा भी  होता है, धीरे- धीरे जितने भी आक्रमणकरी आये उन्होंने काम काज में अपनी भाषा का उपयोग करना शुरू कर दिया, धीरे- धीरे संस्कृत का क्षय होने लगा विशेषतः उसके ( संस्कृत) साहित्य लोगों की पहुच से दूर होने लगे, तुर्किश,  अफगानी, अरबी, उर्दू जैसी अन्य भाषाओँ का प्रचलन बढ़ने लगा, यहाँ मैं एक बात और स्पष्ट करना चाहता हूँ कि "जब हम किसी की भाषा सीखते हैं तो उसी के साथ उसकी कुछ जीवन शैली भी हममे जाने या अनजाने आजाती है, जो कालांतर में बढती रहती है, और उस स्थान या देश की मूल संस्कृति का अतिक्रमण करने लगती है, और भविष्य में उस स्थान की मूल संस्कृति को पूरी तरह से ग्रसित कर लेती है"    इसी समय भारतीय बुद्धि जीवियों ने संस्कृत से ही एक अपेक्षाकृत सरल और सुगम  भाषा "देवनागरी या  हिंदी"  का निर्माण किया,  जिससे संस्कृत भाषा में संगृहित ग्रंथों का का अनुवाद कर उन्हें भारतीय जन मानस तक पहुचाया जा सके, मेरे समझ में  देवनागरी का अर्थ हुआ देव भाषा का वो प्रारूप जो नागरिकों के लिए बना है, अर्थात एक ऐसा रूप जो सामान्य जन के समझ में आ सके. परन्तु बार- बार आक्रमण होने से भारतीय अदि ग्रंथों का क्षय होता रहा, यहाँ तक कि मुग़ल आक्रमणकारियों ने वेदों को जलाया भी था, इसके पीछे मनसा वही थी संस्कृति और ज्ञान कोष को नष्ट करना, 
अबतक  तक भारतीय पुरातन साहित्य आम जन से दूर हो चुका था, परन्तु हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ भारत के संस्कृति को अपनी गोंद में समेटे थी, उसी समय अंग्रेजों ने भारत पर कुटिलता से कब्ज़ा किया और संस्कृत, हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ कि जगह अंग्रेजी थोपना शुरू कर दिया,  इन पश्चिमी लोगों ने एक  योजना के तहत हमारी जड़ काटना शुरू किया  पहले हमारी भाषा संस्कृत फिर हिंदी से हमे दूर कर अंग्रेजी थोप दी, इन्होने अपने तरीकों से मनमाने ग्रंथों की रचना की और वो भारतीय विद्यार्थियों को पढने के लिए देने लगे, इसका परिणाम ये हुआ कि हमारे  पुरातन ज्ञानकोष से हम वंचित हो गए, यहाँ तक की अपना इतिहास भी हम उस तरीके से मानने लगे जिसतरह से अंग्रेज मनवाना चाहते थे, मेरी नजर में भारतीय भाषाओँ को जितनी क्षति अंग्रेजों के काल में या स्वतंत्रता के बाद हुई उतनी मुगलकाल में भी नहीं हुई थी,  स्वतंत्रता के बाद जब हमने  दुबारा विकास के मार्ग में चलने कि कोशिश की तो हम अपने पुरातन ज्ञान को टटोलने कि जगह पश्चिमी देशो कि तरफ देखने लगे, क्योंकि अब  शिक्षा का  माध्यम संस्कृत नहीं था,  इसलिए उन ग्रंथो के ग्रूढ़ श्लोकों को समझकर उन्हें प्रायोगिक रूप से ढालना हमारे बस के बाहर कि बात हो गई, हम जबतक हिंदी को पकड़ कर पुरातन ज्ञान तक पहुँचते तबतक हमारे देश के तथाकथित राजनेता, जो वास्तव में अपनी आत्मा अंग्रेजों को गिरवी कर चुके थे, हिंदी की जगह अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम के रूप में विकसित करने लगे.
अग्रेजी के साथ- साथ हमने अग्रेजी संस्कृति को भी श्रेष्ठ समझकर उसे अपनाना शुरू करदिया, जो की हमारी अबतक की सबसे बड़ी भूल थी, हम ये भूल गए की भारत के जितने महान लोग हुए हैं चाहे वो आदि शंकराचार्य जी हों,  स्वामी विवेकानंद जी हो, रविंद्रनाथ ठाकुर हों, या गाँधी जी, इन्हें सबको प्रेरणा और मार्गदर्शन संस्कृत ग्रंथोसे ही मिला है, 

आज हमारी वही  हालत हो गई है जो कश्तूरी मृग की होती है, ज्ञान कोष तो हमारे पास हैं परन्तु हम अज्ञानता के कारन दूसरों की तरफ देख रहे है, हमारी सरकार भी शायद यही चाहती है की हम दूसरों पर आश्रित रहें, अपने स्वाभिमान को गिरवी रखकर दूसरों से कृपा की आशा करें, मैं यहाँ एक उदाहरण देना चाहता हूँ, आज भारत में ये हालत हैं कि, हमारी देव भाषा संस्कृत और मात्रि भाषा हिंदी बोलने वाला व्यक्ति चाहे कितना ही प्रकांड विद्वान् हो उसे मूर्ख और पिछड़ा समझाजाता है, और एक अंग्रेजी बोलने वाला व्यक्ति चाहे अगंरेजी के अलावा कुछ भी न जनता हो, निरा गवांर हो उसे बुद्धिमान और सभ्य माना जाता है,

हम लोगों के लिए ये कितनी शर्म कि बात है कि हमारी ही जमीन में हमारी ही देवभाषा और मात्रि  भाषा का अपमान होता है, शोषण होता है, उसे हेय द्रष्टि से देखा जाता है,  और हम कुछ नहीं कर रहे, बल्कि हम भी उसमे सहभागी बन रहे हैं, और मुझे दुःख इसबात का होता है कि आज के शिक्षित वर्ग को भी अपनी भाषा का अपमान करने से कोई परहेज नहीं है, यही तो इन विदेशी आक्रमणकारियों कि चाल थी जो सफल होती नजर आरही है, महात्मा गाँधी जी ने भी इस खतरे से हम लोगों को आगाह किया था और कहा था राष्ट्र की भाषा हिंदी ही होनी चाहिए,  परन्तु उनके बाद स्वतंत्र भारत कि बागडोर ऐसे हाथो में चली गई जो पहले से ही पश्चिमवादी थे. और उन्होंने क्षेत्रीय भाषियों को आपस में लड़कर, सबके ऊपर विदेशी, और तुच्छ भाषा अंग्रेजी थोप दिया, 

मैं आप सभी को ये चेतावनी देना चाहता हूँ कि अगर यही दशा रही तो वो दिन दूर नहीं जब संस्कृत और हिंदी इतिहास भर रह जाएगी और, हमारी सस्कृति पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी, हम अपनी मसिकता हो बेच चुके होंगे, और उस धरोहर को जिसके लिए हमारे मनीषियों ने हजारों साल ताप किया, जिसकी वजह से हम विश्वगुरु कहे जाते थे, जिन शोधों और नीतियों कि वजह से हम सोने कि चिड़िया कहे जाते थे वो सब नष्ट हो जायेंगे, और हम बिकुल अनाथ और भ्रमित हो जायेंगे,

इस संकट से निबटने के लिए हमें क्या करना चाहिए: मेरी समझ में इसका उपाय ये है कि:
१.  शुरुआत में स्नातक स्तर कि शिक्षा तक संस्कृत और हिंदी अनिवार्य विषय होना चाहिए और धीरे - धीरे उच्च शिक्षा का माध्यम हो सके तो संस्कृत नहीं तो हिंदी तक लेजाना चाहिए और अंग्रेजी केवल वैकल्पिक विषय के रूपमे सम्लित होना चाहिए न कि अनिवार्य भाषा के रूप में,
२. शोध के लिए हमे अपने वेदों कि तरफ भी देखना चाहिए, उनके गहन और वैज्ञानिक अध्ययन कि जरूरत है, इसके उलट आज हाल ये हैं कि समाज के सबसे कम मेधावी छात्रों को वेदों के अध्ययन कि तरफ भेजा जाता है और अधिक मेधावी छात्रों को वेदों के अध्ययन कि तरफ प्रेरित नहीं किया जाता, उन्हें पश्चिमी साहित्य पढने को दिया जाता है,
३, हमे अपनी माँ (जननी, मातृभूमि, अपनी देव और मातृभाषा, गौमाता, नदियाँ, साहित्य, सस्कृति और प्रकृति) का सम्मान, संरक्षण और संवर्धन करना सीखना होगा, 
४. हमारे नीति निर्धारको को उपर्योक्त कार्यों हेतु नीति बनानी चाहिए और हमें उसके लिए उन्हें बाध्य भी करना चाहिए,    

आग्रह: मैं आपके विचारों और सुझाओं का स्वागत करता हूँ , मेरे  इस निबंध को लोगों में अधिक से अधिक बाटकर, भारत की भाषा, ज्ञानकोष और  संस्कृति कि रक्षा करने, उसके स्वाबलंबी बनाने में अपना अतुलनीय योगदान दें,

जय भारत! जय हिंद! 

धन्यवाद् , 

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा लेख हैं सुधीर जी...
    आपकी बात से सहमत हूँ कि भारत सरकार और सभी भारतीयों को अपनी भाषा और अपनी जड़ों की ओर भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि उसी से हमारा अस्तित्व है...

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    1. सतीश जी! बहुत बहुत धन्यवाद् आपके उत्साहवर्धन के लिए...जब तक हम अपनी भाषा को लेका आंगे नहीं बढ़ेंगे पिछड़ते रहेंगे और इसका दुष्परिणाम हमारी संस्कृति को भुगतना पड़ेगा.

      पुनः हार्दिक धन्यवाद् आपकी टिपण्णी के लिए..

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