मंगलवार, 26 अगस्त 2014

मैं अछूत क्यों ?




मैं क्यों अछूत ? और तुम क्यों नहीं?
मैला तो तुम्हारा है, मेरा नहीं ,

तुम्हारे मैले ने, मुझे मैला कर दिया,
फिर भी तुम मुझे, मैला क्यों कहते हो,

तुम्हे  स्वच्छ रखने रोज मैं आती हूँ, 
तुम्हारे मैले को साथ मैं ले जाती हूँ,

तुम मुझे क्यों कहते हो अछूत? 
तुम मुझे क्यों कहते हो मैली ?

शायद इसलिए कि मैं मैला ढोती हूँ,
शायद इसलिए कि मैं सफाई करती हूँ,

पर वो तो तुम्हारी माँ भी करती थी,
याद है ना ! बचपन में जब तुम टट्टी करते थे,

जब तुम टट्टी करते थे, वो भी अपनी चड्ढी में,
कैसे माँ ख़ुशी -खुशी उसे साफ़ करती थी,

फिर तो तुम्हारी माँ भी अछूत हुई,
वो भी मैली हुई, पर नहीं ! वो तो पूजनीय है !

ऐसा क्यों ? मैं अछूत ! और वो पूजनीय !
शायद मैं तुम्हारी माँ नहीं ! सिर्फ इसलिए ?

पर मत भूलो मैं भी किसी की माँ हूँ,
मैं भी एक इंसान हूँ, सम्मान की हक़दार हूँ, 

किसी और के बच्चे का मैला साफ़ करना,
अपने बच्चे के मैले से ज्यादा कठिन होता है,

इस हिसाब से तो मैं तुम्हारी बड़ी माँ हुई,
फिर, मैं अछूत क्यों ??

असल में मैले तो तुम हो, मैं नहीं,
क्योंकि मैला तुम करते हो, और मैं सफाई,

फिर भी मैं अछूत क्यों ? और तुम नहीं ? 

सोमवार, 25 अगस्त 2014

मेरे हुज़ूर



उनकी यादों के बिछौने पे, रात गुजरी है,
हम तो तनहा नहीं, साँसों से सांस गुज़री है,

क्या गम है, गर उन्होंने रुसवा हमे किया,
मेरे धड़कन पे तो आज भी वो बसती हैं , 

मेरी हर -एक आरजू उनका दीदार करे,
मेरे मेहबूब की ये भी सरपरस्ती है, 

मेरे हुज़ूर के जलवे का कोई क्या कहे,
उनके आने पे ही तो रोज शाम ढलती है, 

उनके आने पे तो महताब डरा है यारो,
तभी तो फलक की गोद में छुपा बैठा है,

उनके तसब्बुर से हिलाल रुसवा है यारो,
तब क्या होगा जब अब्र से वो देखेंगी,

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

फटे पन्ने !


खिली है धूप आँगन में, आज फिर आईने जैसी,
बरसती आग है लेकिन, झडी पावस सरीखे की,

चलने फिर लगी जैसे, हवांए आज आंधी सी,
पलटने वो लगी पन्ने, किताबे- -कहानी की,

कहीं खुशियों की बारिस है, कहीं ग़म के किनारे भी,
कहीं अपने पराये हैं, कही गैरों के साए भी,

कही चलने की जल्दी है, कहीं रुकने की मस्ती है,
कहीं खुशबू है यादों में, कहीं कांटे फ़िजाओं में,

कहीं उड़ता हवाओं में, कहीं गिरता शिलाओं में,
कहीं ममता का मरहम है, कहीं यादें जफाओं में

कहीं जन्नत की चाहत है, कहीं ख्वाहिश जहन्नुम की,
कहीं है सामने दरिया, कहीं दीखता किनारा भी,

कहीं धुधली सी यादें हैं, कहीं चुभती कटारें भी,
कहीं दिलबर की बाहें हैं, कहीं फ़ुरकत सदायें भी,

कहीं मिलने की जल्दी है, कहीं जल्दी बिछड़ने की,
कहीं पाने की ख्वाहिश है, कहीं खोने की मर्जी भी,

कहीं पे जख्म दमन पे, कहीं पे दाग़ मन में भी
कहीं गैरों के अहसान हैं, कहीं नाखून अपने भी,

कहीं अफ़सोस राहों पर, कहीं हसरत किनारों पे,
कहीं खुद पे ही गुस्सा है, कहीं खालिश खुदाई पे,

पलटती है हवा पन्ने, किताब- -आफ़साने की,

फटे पन्नो में है, सिमटी, कहानी इस दीवाने की,

शनिवार, 9 अगस्त 2014

सखा !



उर की पीर उरही मा राखे,
भेद कहे तो जगहुँहिं जाने,

बूझे सखा, असखा न बूझे,
दोनोहुँ जन को ईशहिं राखे,

चूड़ामणि, मुद्रिका दिखाई ,
रामसिया की सुधि बतलाई,

मित्र सुदामा जी के तंदुल,
या सबरी के बेर हो भाई,

सखा कि पीर सखा के हिरदय,
सबहीं ने तुरतहिं पहुंचाई,