गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

बड़े बेआबरू होकर तेरे पहलू से हम निकले





बड़े बेआबरू होकर, तेरे पहलू से हम निकले,
मिटे ना दाग दामन से, कहो कैसे कसक निकले, 

बड़ी मन्नत करी हमने, तेरे रुखसार के खातिर,
ना जाने वही किनारा था, या फिर वो बेवफा निकले 

तेरे एक अक्स को छूने, चले थे हम मेरे मालिक,
न जाने कब गली बदली, न जाने कब समां बदला,

किये थे पार कितने ही, पहाड़ों और समंदर को,
मिलन की जब घड़ी आई, तो वो ही बेरहम निकले,

तेरे एक नूर के खातिर, खड़े थे दर पे तेरे हम,
न तुम निकले, न हम निकले, बख्त ही बेवफा निकले,

ठिकाना बन गई साँसें, मेरी इस बेकरारी का,
मुझे अब ये बता मौला, के कैसे दम से दम निकले,

                              - सुधीर कुमार शुक्ल " तेजस्वी"





मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

लबों से पीने और पिलाने आये हैं



" वैलेंटाइन डे" के उपलक्ष में प्रेमी दिलों को सप्रेम भेट,


मेरी महफ़िल को वो सजाने आये हैं,
दो बूँद पीने और पिलाने आये हैं,

लबों से छू लूँ  मैं दामन उनका, 
इश्क से भर के वो पैमाने लाये हैं,

उनकी जुल्फों की इन घटाओ पे,
हम तो खुद को डुबाने आये हैं,

उनकी साँसों से छलकते नगमे,
अपनी रूह को नहलाने लाये हैं,

उनकी इन आखों से निखरते मोती,
इनको दिल में हम सजाने आये हैं,

लबों पे जाम छलकता यारों
लबों से पीने और पिलाने आये हैं,

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

फलक: मानव के दानवता की कहानी



मेरे प्यारे मित्रों!
आज के इस तथाकथित सभ्य समाज में कन्याओं पर हो रहे निर्मम,घ्रणित एवं अमानवीय अत्याचार से व्यथित हो कर मैंने कुछ पंक्तिया लिखी हैं, ये कोई कवि की कल्पना की उड़ान नहीं, अपितु घ्रणित सत्य है. अभी "फलक" नाम की २ साल की बच्ची की कहानी आप सभी ने सुनी होगी, ये कोई १ फलक की कहानी नहीं है, अपितु हर घर, हर मोहल्ले में १ फलक है. मैं ये आशा करता हूँ  कि जिस किसी में भी मानव हृदय विद्यमान है, उसको ये पंक्तियाँ झकझोर कर, आंदोलित अवश्य करदेंगी.......आप से निवेदन है मेरी इस कविता को अधिक से अधिक शेयर कर, "Child abuse and Girl abuse"  के खिलाफ जागरूकता फैलाकर, कन्याओं की अस्मिता की रक्षा में एवं उनके संरक्षण में अपना अतुलनीय योगदान दें, साथ ही ये सपथ लें कि अपनी जानकारी में कन्याओं एवं महिलाओं के खिलाफ अत्याचार नहीं होने देंगे.....धन्यवाद् एवं आभार!!


आज सुनाऊं, इस मानव के,
दानवता की, एक कहानी,
मानवता के, चीर हरण की,
है ये सच्ची, क्रूर कहानी,

ये  वहसी दानव, दैत्यों की,
निर्दयता की, एक कहानी,
पत्थर भी सुन, काँप उठेगा,
ऐसी निर्मम, घ्रणित कहानी,
बीज पड़ा जब, गर्भ में उसका,
लिंग परीक्षण है, करवाते ,
अगर कही है, वो कन्या तो,
मृत्यु भ्रूंड की, ये करवाते,

कही अगर जो, बच कर आती,
जीवित ही, उसको दफनाते,
कभी कहीं जो, बची बिचारी, 
गला घोट कर, उसे मारते, 
चाचा हो या, पिता सभी ने,
नन्हे बदन की, बली चढ़ाई,
करे रुदन जो कहीं "फलक" तो,
डसते सर्प सरीखे भाई,

एक नन्ही सी, जान के पीछे,
पड़े हैं कितने,  आताताई,
बड़ी हुई जो, अगर परी तो,
"आयुषी",  "सहर गुल" उसे बनाई,
माँ और पिता, सभी ने मिलकर,
खून पिया, और बलि चढ़ाई,
एक कन्या के, पड़े हैं पीछे,
ऐसे नर पिशाच, हैं भाई, 

अपनी, अपनी हवास के खातिर,
कन्या का तन, सबने खाया,
नहीं भरा जब पेट, असुर का,
डाल तेजाब है, उसे जलाया,
गई अगर जो, कही पुलिस पे, 
उनने  मिलकर, फिरसे लूटा,
सब संरक्षक, बने हैं भक्षक,
बिटिया बनी, वस्तु है भाई, 

शिक्षक हों या, हों सहकर्मी,
बने सभी हैं, हवस के धर्मी, 
मंदिर हो या, हो मधुशाला,
नहीं सुरक्षित है, अब बाला,

गई चिकित्सा के, खातिर तो,
डॉक्टर ने भी, हवस उतारी,
हुई मौत जो, अगर दर्द से,
नहीं लाश को, उसने छोड़ा,

मृत शरीर पर, हवस बुझाकर,
बना, दैत्य से बदतर, अब नर,
इस विकसित, समाज  में  देखो,
कैसी है, बर्बरता आई,

बना पिशाच, आज है पालक,
जननी बनी, भक्षिका भाई,
बदनसीब इस कन्या की,
औ निर्ममता की, है ये कहानी, 

जहाँ पूजते थे, कन्या को, 
देवी प्रतिमा सम,  हम  भाई,
प्रथम ग्रास है, अब वो दुहिता,
है सच्ची, पर घ्रणित कहानी,

- सुधीर कुमार शुक्ल " तेजस्वी"