सत्यमेव जयते का सच



प्रिय भारतीय मित्रों!!

आपको भारत के स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाये. 
इस पुण्य तिथि पर मैं आपके लिए एक नूतन विषय प्रस्तुत कर रहा हूँ, आशा है आप मुझसे सहमत होंगे, और बदलाव के लिए तैयार भी. 


सत्यमेव जयते भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है, जिसका अर्थ है " सत्य की ही विजय होती है"  यह वाक्य मुंडकोपनिषद त्रतीय के श्लोक छः से लिया गया है:-

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पंथा विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र सत्सत्यस्य परमं निधानम्॥

अर्थात सत्य की ही विजय होती है, झूठ की नहीं। सत्य से ही देवयान मार्ग परिपूर्ण है। इसके द्वारा ही कामना रहित ऋषिगण उसे (परमपद को) प्राप्त करते हैं, जहां सत्य के श्रेष्ठ भण्डार-रूप परमात्मा का निवास है।

इस वाक्य " सत्यमेव जयते"  को जब भारत के महान सम्राट अशोक ने अपनाया तो उनके मन में जो लालसा जनित क्रूरता थी वो चली गई और उन्होंने शांति का रास्ता अनुसरित किया.  

भारत के इतिहास में एक समय फिर आया जब लम्बे संघर्ष और अनगिनत बलिदानों के फलस्वरूप हमे आजादी मिली, आजादी के समय के जो भारतीय विचारक थे उन्होंने इस वाक्य " सत्यमेव जयते" को एक ऐसे मार्गदर्शक के रूप में देखा जिससे सदियों से प्रताड़ित भारतीय जनों को सुख और शांति मिल सके,  इस वाक्य  "सत्यमेव जयते" को राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बनाया गया और इसके पीछे मंशा ये थी कि भारत के नागरिक सत् मार्ग पर चलेंगे और सुखी रहेंगे, इससे भी बढ़कर देश के शासक वर्ग को ये वाक्य स्मरण  रहेगा कि उनके दायित्व क्या है, " सत्यमेव जयते" के वृहद् विश्लेषण पर मैं नहीं जाना चाहूँगा परन्तु ये अवश्य कहूँगा इस वाक्य में संपूर्ण मानवता का ज्ञान और मानव  का कल्याण का आधार निहित है, किसी भी देश के संविधान का आधार भी यही वाक्य होता है, इसमें थोडा और प्रकाश डालूँ तो "सत्यम शिवम् सुन्दरम"  जैसे दूसरे वाक्य को देखना चाहिए जिसका अर्थ है "सत्य ही कल्याणकारी है, या शुभ है , और  सत्य ही प्रिय है, या सुन्दर है, और किसी भी राष्ट्र का संविधान उस राष्ट्र के लोगों को सुख, शांति प्रदान करने के लिए होता है, अतः ये स्पष्ट है की संविधान का आधार इसी वाक्य में निहित है. 

अब यदि आज के परिप्रेक्ष्य में इस वाक्य " सत्यमेव जयते" को देखता हूँ तो ऐसा लगता है कि इसका अस्तित्व सिर्फ अशोक स्तम्भ तक ही सीमित रह गया है, एक सामान्य व्यक्ति से लेकर, चपरासी, लिपिक, पोलिस - प्रशासन तक इस वाक्य का अनुशरण करने के लिए कोई तैयार नहीं है, और सबसे ज्यादा इस आदर्श वाक्य कि अवहेलना आज के राजनेताओं ने की है, असल में यह सिर्फ एक वाक्य नहीं है एक आदर्श है, एक मार्ग है, एक जीवन शैली है , एक परंपरा है जिसमे " सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावना निहित है". ये  विषय इतना व्रहद है की इसमें एक किताब तक लिखी जा सकती है परन्तु  इस लेख में मैं अपना लक्ष्य राजनेताओं को रखूंगा क्योंकि, मैं मानता हूँ की राजा के लिए किसी भी नियम, आदर्श का पालन अधिक अनिवार्य होता है क्योंकि उनके पास शक्तियां होती हैं और उनके आचरण का प्रभाव कही अधिक व्यापक और दीर्घकालीन होता है, 
आज मैं जब किसी  नेता भाषण या वक्तव्य सुनता हूँ और उसकी कार्य शैली पर गौर करता हूँ तो मुझे कई विपरीत व्यक्तित्वा वाले व्यक्ति दिखाई देते हैं, आज देश जिन कठिनाइयों से जूझ रहा है चाहे वो, बेरोजगारी हो, भुखमरी हो, गरीबी हो, महगाई हो,  अशिक्षा हो, पर्यावरण की समस्या हो, या सांप्रदायिक दंगे हों, नक्सलवाद हो, कश्मीर समस्या हो, आतंकवाद हो या, फिर अभी हाल में असाम की घटना हो, इन सबके पीछे एक ही कारण है, नेताओं द्वारा कुटिल नीतियाँ बनाना और अपने सत्ता प्राप्ति के लिए असामाजिक तत्वों का पोषण ही नहीं संवर्धन करना है,  आज भ्रष्टाचार जो भस्मासुर की तरह विकराल हो चुका है ये इन स्वार्थी नेताओं की सोची- समझी देन है, ये सत्ता हथियाने या उसमे बने रहने के लिए कुछ भी कर सकते हैं इसके कुछ दृश्य मैं  आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ


भारत का बटवारा: भारत का १९४७ का बटवारा जिन्ना और जवाहरलाल की प्रधानमंत्री पद प्राप्त करने की कुलषित लालसा की देन है, 

कश्मीर समस्या:  भारत -पाक बटवारे के समय राजा हरि सिंह की सत्ता में बने रहने की लालसा और इसी वजह से वो  शुरुआती दिनों में भारत में शामिल नहीं हुए और नतीजा ये हुआ की उन्हें अकेला और कमजोर पाकर पकिस्तान कश्मीर हड़पने की कोशिश करने लगा.  आज भी वहां वही खूनी खेल चल रहा है, सुरक्षा कर्मी निर्दोष महिलाओं का बलात्कार करते हैं और आतंकवादी निर्दोष जनता का खून बहाते हैं, और दूसरी तरफ लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में बंजारों की तरह जीने के लिए मजबूर हैं,

दिल्ली का सिख विरोधी दंगा: ये सभी को पता है की इंदिरा जी की हत्या के बाद दिल्ली में जो दंगे हुए वो सरकार द्वारा प्रायोजित थे.

मुंबई और गुजरात के सम्प्रदाइक दंगे: ये दोनों दंगे या तो सरकार द्वारा पोषित थे या सरकार जानबूझकर निष्क्रिय बनी रही.

पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में बंगलादेशियों की घुस पैठ: पश्चिम बंगाल हो या आसाम हो यहाँ बंगलादेशियों की घुसपैठ नेताओं द्वारा सिर्फ और सिर्फ  "वोट बैंक" बनाने के लिए पोषित है. आज असाम की जो हालत है कितने शर्म की बात है की हमारे ही देशवाशियों को उन्ही के घर में जिन्दा जलाया जाता है उन्हें अपने घरसे बेघर किया जाता है, और सरकार परोक्ष रूप से इसका संरक्षण कर रही है, और एक दिन इसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ेगा. 

उत्तर प्रदेश और बिहार की जातिगत राजनीति:  इन प्रदेशों में जातिगत वैमनष्य राजनेताओं द्वारा प्रायोजित है सिर्फ सत्ता पाने के लिए.

मुस्लिम तुस्टीकरण: हमारे देश में कुछ पार्टिया मुस्लिमों को सिर्फ एक वोट के खजाने की तरह उपयोंग करती हैं, उनकी प्रगति से इन पार्टियों का कोई सरोकार नहीं है.

घोटालों की राजनीति: भारतीय राजनीति में घोटालों की भरमार इस तरह है कि ऐसा लगता है कि नेता सिर्फ घोटाले करके और पैसा कमाने के लिए हैं, चाहे वो बोफोर्स घोटाला हो, चारा घोटाला हो, स्टाम्प घोटाला, यूरिया घोटाला हो, २ जी घोटाला हो, कोयला घोटाला हो, कॉमान्वेल्थ खेल घोटाला हो, या सेना कि खरीद फ़रोख्त का, हमारे राजनेता देश कि गरीब जनता कि खून -पसीने कि कमाई हो हड़पने से कही नहीं चूकते.

राष्ट्र विरोधी समझौते: हमारे राजनेता इतने कुलसित हो गए हैं कि अन्य राष्ट्रोंसे समझौते करते समय अपने राष्ट्रहित का बिलकुल ध्यान नहीं रखते, चाहे वो अमेरिका के साथ न्यूक्लिअर डील हो या हाल में एफ. डी. आइ. का मुद्दा इसमें भारत के हित कि अनदेखी हुई है या होरही है.

गरीबी और अशिक्षा नेताओं द्वारा प्रायोजित हैं: ये बात बड़ी अटपटी लगती है परन्तु ये सत्य है, हमारे राजनेता न तो गरीबी दूरकरने के कोई दूरगामी उपाय कर सकते और न अशिक्षा मिटने की,  इसकी वजह सिर्फ वोट बैंक कि राजनीति है, गरीब को एक मोबाइल या साल भरमे १०० दिनका रोजगार के टुकड़े फेककर वोट लेंगे और उन्हें पढने भी नहीं देंगे क्योंकि पढ़ा लिखा व्यक्ति जल्दी बहकावे में नहीं आता. (ये बात कितनी हास्यास्पद है सरकार के अनुसार कि आज गाँव में २२ रुपये  ४२ पैसे और शहर में २८ रुपये ६५ पैसे प्रतिदिन खर्च करने वाला गरीब नहीं हैं) 

पैसे से सत्ता और सत्ते से पैसा कि राजनीति:  आज पैसे से वोट खरीदे जाते हैं, सांसद और विधायक खरीदे जाते हैं, एक बार सांसद या विधायक बनने के बाद इनकी संपत्ति  १००० गुना कैसे बढ़ जाती है, इसका कोई हिसाब नही है. 

भ्रष्टाचारियों और अपराधियों का पोषण: जिसतरह से आपराधिक छवि वाले लोगों का पोषण राजनीति में होरहा है इससे तो मुझे भारत की स्वतंत्रता खतरे में लगती है, ऐसा लगता है जैसे सामंतवादी व्यवस्था पुनः अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के रूप में फलित हो रही है.


पर्यावरण की अनदेखी: आज पर्यावरण प्रदूषण हमारे देश में जिसतरह हो रहा है उससे किसी का जीवन सुरक्षित नहीं है, भारत की जीवन दायनी कही जाने वाली गंगा और यमुना जैसी नदियों की जो दुर्दशा है उसकी उत्तरदाई सिर्फ सरकारें ही हैं. गंगा को साफ़ करने के लिए गंगा एक्शन प्लान १९८५ में तत्कालीन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में बना और १९९६ में ये परियोजना पूरी भी होगई और नदी की हालत और बदतर हो गई और हजारों करोड़ रुपये जिसमे अधिकतर विदेशी पैसा लगा था, ये दलाल खा गए. उसके बाद १९९३- से १९६ के बीच गंगा एक्शन प्लान -२ बना जिसमे यमुना नदी को भी शामिल किया गया जिसका लक्ष्य २००५ तक गंगा और यमुना को स्वच्छ करना था और अभी की स्थिति आपके सामने है. किसी परियोजना पर हकीकत में अमल नहीं किया गया सिर्फ कागज में काम हुआ या फिर खाली ढाचे खड़े किये गए, और पैसा नेता, प्रशासन और उद्योगपति मिल कर खा गए. 

इसके अलावा बहुत सारे मुद्दे हैं जो इस भ्रस्ट राजनीति की संतान है. 

सबसे दुखद बात ये है की उपर्युक्त सभी मामलों में सत्य क्या है सबको पता है परन्तु सत्य को बोलना और उसे स्वीकार करना कोई नहीं चाहता. अब इन सब बातों को देखने के बाद ये बात कहा तक सही है की हमारे राजनेता हमारे राष्ट्र के  'राष्ट्रीय आदर्श वाक्य'  "सत्यमेव जयते"   सम्मान  करते हैं, इस संकल्पना के साथ अपने दायित्वा निभाते हैं. इन नेताओं के आचरण और कार्यकलापों को देखकर तो यही लगता है की, यह वाक्य सिर्फ रुपये में छापने के लिए हैं, इसका कोई अस्तित्व आजके जीवन में नहीं है.  विडंबना ये है की कोई भी नेता या प्रशासक सत्य बोलने की हिम्मत नहीं करता, और सत्य लगातार हार रहा है.  अब प्रश्न ये उठता है की जब हम 'राष्ट्रीय आदर्श वाक्य' का सम्मान नहीं कर सकते तो इसके राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बनाने का औचित्य क्या है, जिसतरह राष्ट्रगान और तिरंगे का सम्मान होता है वही राष्ट्रीय आदर्श वाक्य की भी होनी चाहिए. 

मेरी समझ में जो इस वाक्य  "सत्यमेव जयते" की मूल भावना में रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करता वो इसका अपमान करता है और जो   'राष्ट्रीय आदर्श वाक्य' का अपमान करता है वो राष्ट्र का अपमान करता है, राष्ट्र का अपमान राष्ट्र द्रोह है, और राष्ट्र द्रोह की सजा आप सब जानते हैं क्या होनी चाहिए.....और भारतीय संविधान के अनुसार है भी!!

जय हिंद! जय भारत! जय भारत- जन! 

7 टिप्‍पणियां:

  1. Shukla ji, bahut saral shabdon me bahut gehri baatein kahi hain aapne! keep it up!

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  2. सुंदर विवरण व अभिव्यक्ति। यह वस्तुस्थिति है। परन्तु इस परिस्थिति को सुधारने का जमीनी मार्ग क्या है। हमारे आदर्श कुछ जयादा ऊँचे हैं के आमजन के लिए विचरण असंभव है। या आदम फितरत ही कुछ ऐसी है जो बाहरी सुंदर लेप के वावुजूद अंदर से कुटिल एवम अहम प्रिय है।
    देशहित में सटीक विश्लेषण व मार्ग ज़रूरी है।

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