शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

हे ! राम आ जाओ

मेरे आराध्य एवं आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्री रामचंद्र जी के जन्मदिन पर भावनात्मक काव्यांजलि !!



बाल राम तुम आओ,
नैनन में बस जाओ,

धूल धूसरित तन है,
निर्मल-निश्चल मन है,

ठुमक चाल, तेज भाल।
कौशल्या के तुम लाल।

तुम पर ब्रम्हांड बसे। 
दशरथ के प्राण बसे।।

घुघराले केशों पर।
स्वर्ण मुकुट हो साजे।।

चंचल दो नयन भोले।
जीवन के पास तोड़ें।।

दिवस, माह बीत गए।
साल आयें और जाए।।

मेरी अँखियाँ उदास।
दर्शन की है चाह।।

तोतली-मीठी बोली से।
मुझे को तुम लो पुकार।।

अपने इस दीन की।
सुन लो अब तुम पुकार।।

कर के कुछ बाल हठ। 
कर दो मेरा उद्धार।।

हे ! राम आ जाओ !  मेरे नाथ आजो !!

रविवार, 14 अप्रैल 2013

धर्म !



धर्म क्या है ?  क्या यह एक विश्वास है, या अन्धविश्वास ! एक जूनून है या रूढ़िवादिता ! प्रपंच है या, आडम्बर !  या यह सिर्फ अकर्मण्य लोगों का संबल है !
धर्मं हमें कहा ले जाता है? हमसे क्या चाहता है?  हमें क्या देता है ?  क्या यह भाई चारा सिखाता है, या वैमनष्यता ? धर्मं मानवता के लिए वरदान है या अभिशाप है ? 
धर्म हमारे लिए जरूरी भी है या नहीं ?

मेरी बुद्धि, अपने सीमित ज्ञान और अनुभवों का उपयोंग कर जब  इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करती है, तो जो कुछ मैं पाता हूँ वह अधो लिखित है: 


जब मैं धर्म के बारे में सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि "कर्म जब अध्यात्म से मिलता है तो वो धर्म बन जाता है" दूसरे  शब्दों में  "कर्म और अध्यात्म का योग ही धर्म है", और सरल भाषा में " कर्म जब अध्यात्म से प्रभावित होता है तो धर्म बन जाता है"  अब प्रश्न ये उठता है कर्म क्या है? अध्यात्म क्या है? और ये आपस में क्यों मिलते हैं? या इनका मिलना क्यों जरूरी है? 

कर्म: सामान्य परिभाषा  में "कर्म किसी व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य होता है" और अध्यात्म: "आत्मा को परमात्मा ये जोड़ने या परमात्मा को जानने की प्रक्रिया"।  अब प्रश्न ये उठता है की कर्म को अध्यात्म से जोड़ने की क्या जरूरत है? मानव जन्म का उद्देश्य अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए मोक्ष को प्राप्त करना है। अब प्रश्न ये उठता है की मोक्ष क्या है?  और मोक्ष की जरूरत क्या है?  

मोक्ष: आत्मा का परमात्मा से मिलन है, फलस्वरूप जन्म म्रत्यु के बंधन से मुक्ति। रही बात मोक्ष की जरूरत की तो, जैसे प्राणी को स्वतंत्रता प्रिय है, उसी तरह आत्मा को भी स्वतंत्रता प्रिय है, आत्मा जन्म, मृत्यु के बंधन से मुक्त होना चाहती है, वह स्वतंत्र होना चाहती है, अपने मौलिक स्थान में जाना चाहती है, और उसका मूल स्थान परमात्मा है न कि यह शरीर। यह शरीर तो आत्मा के परमात्मा से मिलने का एक माध्यम मात्र है।  (कुछ तथाकथित व्यावहारिक लोग  (Practical People) ये कहेंगे की वो  मोक्ष को नहीं मानते, ये सिर्फ कल्पना है। मैं उनसे कहना चाहूँगा, अगर आप मोक्ष को नहीं मानते कोई समस्या नहीं, परन्तु मानव कल्याण, और प्रकृति के कल्याण को तो मानते हैं, धर्म संगत कार्य में ही मानव और प्रकृति का कल्याण निहित है।)

अब प्रश्न ये उठता है की ये कैसे सुनिश्चित हो की हमारे कर्म हमें मोक्ष की और ले जारहे हैं, तो हमें ये समझना जरूरी है की हमारा धर्म ही हमें मोक्ष की और ले जा सकता है, अर्थात ऐसा कर्म जो अध्यात्म की कसौटी में खरा हो, या अर्थात नैतिक हो। यहाँ हमें सावधान रहना होगा की आजकल धर्म के नाम पर आडम्बर व  व्यवसाय चल रहा है, लोगों को भ्रमित किया जा रहा है, अतः धर्म से मेरा तात्पर्य किसी संप्रदाय से नहीं है, अपितु  धर्म के मौलिक रूप से हैं। धर्म का मौलिक रूप ज्ञान और विवेक से तर्क की कसौटी में खरा उतरता है।   हमारे अदि मनीषियों ने जीवन के विषद अनुभवों और ज्ञान से, जीवन यापन  के कुछ सिधांत बनाये थे जिन्हें एकीकृत रूप से धर्म कहा गया , कालांतर में वो दूषित भी हो गए, परन्तु कुछ मौलिक रूप में हैं भी, इसी लिए आवश्यक है की अभीष्ट कर्म धार्मिक है या अधार्मिक, इसकी पुष्टि मनुष्य को अपने विवेक से कर लेनी चाहिए, अन्धानुकरण नहीं करना चाहिए । यदि कर्म तार्किक रूप से नैतिक है तो ये मान लेना चाहिए की वो धार्मिक होगा।  उसी तरह जो धर्म तर्क की कसौटी में नैतिक नहीं है, वह न तो हमें  मोक्ष की और ले जा सकता और नहीं समाज के हित में है। एक बात और ध्यान रखने वाली है, धार्मिक कार्य समाज का अहित कभी नहीं करते, और जो कार्य समाज का अहित करे वह धर्म संगत नहीं हो सकता। 

आज धर्म के नाम पर सम्प्रदायवाद फलफूल रहा है, मानव- मानव का दुश्मन है वह धर्म कभी नहीं हो सकता, क्यों की धर्म प्रकृति से प्रेम,प्राणियों से प्रेम, मानव से प्रेम सिखाता है। वह वसुधा को एक कुटुंब मानता है। वह अहिंसक है ! सत्य पलक है! न्यायसंगत है। (आज कल लोगों ने न्याय की परिभाषा भी बदल दी है, ये बहुत चिंतन का विषय है, परन्तु इस लेख में मैं उसपर प्रकश नहीं डाल रहा अन्यथा विषयांतर हो जाऊंगा)  धर्म नैतिक है।  यदि ऐसा है तो फिर धर्म के नाम पर लोगों को क्यों लूटा जा रहा है? धर्म के नाम पर लोग लहू पिपाशु क्यों बने हुए हैं? ये धर्म कभी नहीं हो सकता। 


धर्म, काल और परिष्थिति  के अनुसार श्रेष्ठ कर्म निर्धारित करता है, जोकि तर्कसंगत और नैतिक होता है। हमें हमेशा इस बात पर सजग रहना चाहिए !

उदाहरनार्थ : एक पुरुष के, पुत्र, पिता, भाई, पति, मित्र,  नागरिक, आदि  और उससे भी बढ़कर "मानव" के रूप में  निश्चित दयित्व होते हैं, हमें कर्म करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए की, एक कर्म से किसी दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण न हो। और कर्मो की टकराव की परिस्थिति में हमें उस कर्त्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए जो "लोक हितकारी हो" उस पर भी हमारा ये प्रयास होना चाहिए की हमारे दूसरे कर्तव्यों का अतिक्रमण न हो ।   

ॐ शांतिः !!