आज बंट रहा नग्न चित्र है,
हो सीरियल या फिल्मे हों,
डर्टी-पिक्चर, देसी बोयज़,
हो चाहे कॉमेडी सर्कस,
टीरपी के हवसी भूखे,
ये सोचे बस पैसों की,
नहीं इन्हें है कोई परवा,
बच्चो की या बूढों की,
खुली मानसिकता हैं कहते,
है ये बिलकुल नंगा पन,
मनो रोग से पीड़ित हैं,
ये डाईरेक्टर, प्रोड्यूसर सब,
पांच साल के बच्चो को,
कामुकता का पाठ पढ़ते हैं,
नन्हे शिशु के निर्मल मन पर,
गन्दी आकृति भरते हैं,
बचपन में जो कुंठित मन हो,
व्यभिचारी वो बनता है,
मन में जब है भरी वासना,
बलात्कारी वो बनता है,
सुप्त हुआ प्रसारण मंत्रालय,
नहीं लगता रोक कोई,
"ए" स्तर की फ़िल्में भी,
"प्राइम टाइम" में आती हैं,
इन्हें नहीं है कोई परवा,
बच्चों के संसकारों की,
बिगड़ रहा है कोमल मन,
ऐसे व्यभिचारी छवियों से,
-डॉ. सुधीर कुमार शुक्ल " तेजस्वी"