शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

एक आंसू उस दिए के नाम जो बुझ गया !


इस दिवाली हम दिए जलाएं, जरूर जलाएं 
और ज्यादा दिए जलाएं,

पर आंसू के साथ, उस दिए के नाम,
जो आहुति बनगया, हमारे दिए के लिए,

एक आंसू उस दिए के नाम, जो बुझ गया,
सरहदों पर जलगाया, मशाल बनकर,

एक आंसू  उस घर के नाम, 
जिसका दिया बुझ गया, हमेशा के लिए,

जिसका दिया बुझगया कि, करोड़ों दिए जलते रहे,
एक आंसू उस दिए के नाम भी,

एक आंसू उस वादे के नाम, जो कभी पूरा नहीं होगा,
जो पिता  ने किया था अपनी बेटी से जल्दी घर आने का,

एक बेटे ने किया था माँ  से जो वादा,
एक आंसू उस वादे के नाम, उस माँ के नाम,

एक आंसू उस पत्नी के नाम,
जिसकी हर दिवाली काली होगी, ताकि हमारी रोशन रहे,

एक आंसू उस पिता के नाम,
जिसके बुढ़ापे की लाठी टूट गयी,

एक आंसू उस घर के नाम,
जिसके आँगन का  दिया औरो के दिए पर क़ुर्बान होगया,

एक आंसू उस अधूरे मिलन के नाम,
एक आंसू  राह जोहती सूने आँखों के नाम,

एक आंसू सरहद पर शोले खाने वाले,
हर एक दिए के नाम,

एक आंसू सियाचिन पर गलकर,
न बुझने वाले, न झुकने वाले दिए के नाम, 

आंसू  उस सपूत के नाम, उस वीर के नाम 
जिसने अपनी लहू से दिए जलाये,

एक आंसू भारत माँ की अंचल में,
सर्वस्व न्यवछावर करने वाले उस लाल के नाम,



जय हिन्द !  

शनिवार, 6 अगस्त 2016

खरखराहट !

आधी रात को, होटल के आलीशान कमरे में,
निरंतर खर्राटों के बीच, 
जब सूखे पत्तों की खरखराहट, 
दिल को बेचैन कर देती हो,

वो पत्ते जिन्हें प्रकृति ने न तोड़े हों,
बल्कि पेड़ ने जबरन खुद से अलग किया हो,
बिलकुल पुराने खतों की तरह, 
जिन्हें लोगों से छुपाया और दिल में दफनाया हो,

मीठी से, सोंधी सी, टीस दे जाती है, वो खरखराहट, 
और समय का पहिया जबरन उल्टा घूमने लगता है,
यादों पर छाई धूल, छटने लगती है,
मन कटे हुए पंख के पंछी की तरह तड़पने लगता है,

रविवार, 8 मई 2016

पानी !

कौन कहता है पानी नहीं है,
ज़रा आँखें तो खोलो मेरे यार,
हर तरफ पानी ही पानी है,                      
                   


सागर के नाम में पानी है,
बादल के राग में पानी है,
दूध के साथ में पानी है,
धधकती आग में पानी है,
            फिर तुम क्यों कहते हो पानी नहीं है....

रिश्तों के मान में पानी है,
बेटी की आँख में पानी है,
माँ के अंचल में पानी है,
बच्चे के भाग्य में पानी है,
           फिर तुम क्यों कहते हो पानी नहीं है....

प्यार और विश्वास में पानी है,
दुल्हन के अरमान में पानी है,
बंद घर की चौखट में पानी है,
खपरैल की छत में पानी है,
          फिर तुम क्यों कहते हो पानी नहीं है ....

राम और रहीम में पानी है,
गीता और कुरान में पानी है,
कोयल की कूक में पानी है,
गरीब की चींख में पानी है,
        फिर तुम क्यों कहते हो पानी नहीं है ....

जवान के होश में पानी है,
यौवन के जोश में पानी है,
नशों का खून भी पानी है,
नेताओं के होंठ में पानी है,

ऐ दोस्त देखो ज़रा हर तरफ पानी - ही - पानी है,

सिर्फ एक गिलास ही खाली है.......

यह कविता मूल रूप से "कविता अनवरत"  अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हो चुकी है !


बुधवार, 27 जनवरी 2016

तू चले चल, बस बढे चल !



तू चले चल, बस बढे चल, लौ को कर तीक्ष्ण, 
एक दिए की तरहा, तू जले चल, बस बढ़े चल,

अब हौंसला न टूटे, चाहे कोई भी अब रूठे,
आग को दिल में जला, तू चले चल, बस बढ़े चल,

राह कठिन, है कंटीली, दुर्गम है, पथरीली, 
समय को कर परास्त, तू लड़े चल, बस बढ़े चल,

दिए को बना मशाल, स्वराज को लक्ष्य बना, 
शिखर हो या समंदर, तू चढ़े चल, बस बढ़े चल,

ये आंधी जरा थमी है, अपनों ने जो छली है,
बन कर बबंडर, तू उड़े चल, बस बढ़े चल, 

ये कारवां न रुके, न भटके, सजग हो, सबल हो,
एक नदी की तरहा, तू बहे चल, बस बढे चल, 

                                             -डॉ. सुधीर कुमार शुक्ल "तेजस्वी" 

एक लड़का था दीवाना सा !



एक लड़का था दीवाना सा, एक लड़की पे वो मरता था,
सबसे छुपाके, ग़मखाके, तिल- तिल कर वो घुटता था,

घुट- घुट के, मर- मर के उसकी यादों को वो बुनता था, 
खून से स्याही चुराकर, सपनो में रंग भरता था, 


सुन ना ले आहट कोई, न जाने क्यों वो डरता था,
अपनी धड़कन को भी वो, चोरी- चोरी सुनता था,

रोता था अंदर से, पर, बहार से वो हँसता था,
अपने प्यार को खोकर वो, घुट-घुट कर वो जीता था, 

जब भी मिलता था मुझसे, हंसके पुछा करता था, 
ये प्यार क्यों होता है, आखिर ये होता क्यों है, 

                                         -डॉ. सुधीर कुमार शुक्ल " तेजस्वी"