मैं बहुत असहाय और दुखी हूँ, (आम आदमी की चीख)



कल रात मैं सो नहीं पाया, देश की ताज़ा हालात पर दुखी था। इतने घोटाले, इतना भ्रष्टाचार मैंने कभी नहीं सुना न कभी देखा। राष्ट्रमंडल घोटाला, 2 जी घोटाला, कोल घोटाला, और राबर्ट बढेरा जैसे मुद्दों पे मैं अपना पक्ष रखता था, लड़ने का एक ज़ज्बा रहता था, परन्तु कल एक बात  ऐसी हुई जिनसे मैं काफी निराश  हुआ और ये कहूं की टूट रहा हूँ  तो गलत नहीं होगा। बात सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी का  भारत सरकार द्वारा  विकलागो को दिए जाने वाली सहायता की 71.5 लाख रूपया पूरा का पूरा हज़म कर जाना। पूरी बात ये है की भारत सरकार द्वारा सलमान खुर्शीद के नाना और पूर्व राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन के नाम पर चलाये  जाने वाले ट्रस्ट " डॉ जाकिर हुसैन मेमोरिअल ट्रस्ट" को उत्तर प्रदेश के 13 जिलों के विकलांग बच्चों को विभिन्न उपकरण जैसे साइकिल, सुनने की मशीने इत्यादि  देने के लिए 71.5 लाख रुपये दिए गए थे। सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी ने मिलकर पूरे पैसे हज़म कर लिए, और एक भी उपकरण विकलांगो में नहीं बाटा। यही नहीं इन लोगों ने लाभार्थियों के फर्जी दस्तखत बनाये, अधिकारीयों के जाली दस्तखत बनाये, और यहाँ तक की जाली स्टैम्प और मोहर  बना कर प्रमाणित भी किया।  अब सवाल ये उठता है की हमारे देश के कानून मंत्री का जब ये हाल है तो तो बाकी लोगों का क्या होगा। मंत्री जी और उनकी धर्म पत्नी लालच और स्वार्थ में इतने अंधे हो गए की प्रकृति द्वारा सताए गए विकलांग भाई-बहनों का हक भी डकार गए, उन्हें ये नहीं महशूस हुआ की इन उपकरणों के न मिलने से उन लोगों का जीवन कितना कष्ट प्रद हो रहा होगा, इसे मैं अगर क्रूरता कहूँ तो गलत नहीं होगा। क्या ये नेता इतने संवेदन हीन हो गए की अब विकलांगो का हक तक नहीं छोड़ते, क्या खुर्शीद साहब को अपने स्वर्गीय नाना जी और पूर्व राष्ट्रपति  की गरिमा का जरा भी ख्याल नहीं रहा होगा। आज हमारे देश में, समाज में भ्रष्टाचार और अनैतिकता कितनी अन्दर तक और व्यापक है इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है। कभी- कभी लगता है की क्या सही में हमें  स्वतंत्रता मिली है? क्या गरीबों, असहायों के बारे में सही में कोई सोचता है? कही ये सही में  "बनाना रिपब्लिक" तो नहीं  है? जब मैं सभी घटनाओ को जोड़ता हूँ और उनका अन्वेषण करता हूँ तो लगता है हमारे देश में कुछ नहीं बदला सत्ता अग्रेजों के हाथ से निकल कर कुछ भारतियों के हाथ में चली गई, बाकी सब वैसा का वैसा ही है। यहाँ  के लोग  असहाय हैं, शोषित है, और बड़ी बात ये है की शोषण ऐसे लोगों द्वारा किया जा रहा है जो पोषक होने का दावा करते है, जिन पर देश की जनता विश्वास करती है, मुझे तो बहुत भय लगता है, गरीबों की हालत देख कर पीड़ा होती है, निराशा होती है, क्या ये पीड़ा देश के तथाकथित मालिकों को नहीं होती होगी? ये लोगों का  खून इतने सालों से चूस रहे हैं, रईस हो चुके हैं फिर भी इनका लालच कम क्यों नहीं होता?  क्या इनके कान इतने बहरे हो गए हैं की पीड़ित की चीख नहीं सुनाई दे रही? क्या इनकी आखों में रहम या शर्म बिलकुल नहीं है? क्या ये मानव नहीं है? क्या ये चेतन भी नहीं हैं? जड़ हैं, इनसे ज्यादा संवेदनशील तो एक क्रूर पशु होता है, ये जड़ भी नहीं हैं क्योंकि  कहते हैं कभी- कभी पत्थर भी पिघल जाता है, और ये आज तक नहीं पिघले, और क्रूर होते जा रहे हैं, गरीब चीख रहा है ! असहाय है ! कुछ  सवाल खुद पर भी उठते  है क्या हम कुछ नहीं कर सकते ? क्या हम ये सब बदल नहीं सकते? या फिर बदलना नहीं चाहते? क्या हम दुखियों की आँखों से आंसू नहीं पोछ सकते? क्या हम उनका दर्द कम नहीं कर सकते? क्या हमारे अन्दर का इंसान भी सो गया है? या हमारे अन्दर खून नहीं पानी बह रहा है?  या हम भी इतने स्वार्थी हो गए हैं की अपनों के दुःख  का हम पर असर नहीं होता बस अपना ऑफिस, अपना काम, अपनी फॅमिली !! इन सब बातों का जबाब हम सबको खुद से लेना ही पड़ेगा, नहीं तो हममे और उस मैला खानेवाले सुवर में कोई अंतर नहीं है !

सर्वेभवन्तुसुखिनः !!

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