पर्वत में एक कली थी मुस्काई,
धरा से मिला प्राण, पवन ने महकाई,
गगन से मिली रंगत, सलिल देख इठलाई,
थोड़ी सी अंगडाई, लेकिन फिर शरमाई,
माली ने साथ लिया, रास्ते में बेंच दिया,
कली देख राहों में, भीड़ उमड़ आई,
भीड़ में वो कुचल गयी, रंगत भी बिगड़ गयी,
भीड़ में वो अपना, दामन बचा न पाई,
लाश देख कन्या की, धरा तनिक ठिठक गयी,
पागल सी बिफर गयी, पल में वो बिखर गयी,
धरती की कोख से, तभी एक आह आई,
हे ! ईश्वर, मुझे, बेटी की माँ क्यों बनायीं.
हे ! ईश्वर, मुझे, बेटी की माँ क्यों बनायीं......
पर्वत में एक कली थी मुस्काई...
- सुधीर कुमार शुक्ल तेजस्वी
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