किनारों से टकराकर,
लहरों को बिखरते देखा है,
रेत में डूब कर यूँ ही,
उनको मिटते देखा है,
हवा के पागल झोके,
जब मौत बनकर मंडराते हैं,
इस तिनके को क्या कहूं,
बरगद को भी उखाड़ते देखा है,
जीवन की इस नदिया में,
कठिन धार जब आती है,
उस भंवर को मैं क्या कहूं
कश्ती को ही डुबोते देखा है,
उनके ईमान को मैं क्या कहूं,
गैरत का हाल मैं क्या कहूं,
मैंने खून को बनते पानी,
उस पानी को भी सड़ते देखा है
जिन्दगी की रफ़्तार में,
सैलाब जब आता है कामयाबी का,
इस जमीन को मैं क्या कहूं,
दिलों को भी फटते देखा है,
इस दुनिया के छलावे में,
अपने और गैरों के भुलावे में,
इस बदलती जुबान का क्या,
मैंने बाप भी बदलते देखा है,