शनिवार, 10 मार्च 2012

करतें हैं विष पान आज भी





करतें हैं विष पान आज भी,
हमको अमृत देते हैं,
अडिग खड़े हैं बनकर अंगद,
हमको जीवन देते हैं,

यह वृक्षों की हैं परिभाषा,
पर हित जीवन जीतें हैं,
पत्थर भी जो कोई उछाले,
बदले में फल देते हैं,

पथिक थके तो शीतल छाया दे,
थकान सब हरतें हैं,
चिड़ियों के कलरव से जैसे,
मुरली का सुख देते हैं.

कर आलिंगन धरती का,
उर्वरता और बढ़ाते हैं,
जल समेट कर बाँहों में,
नदियों की गोदी भरते हैं,

बदल से वो प्रेम करें,
औ बारिस अधिक करातें हैं,
शीतल वायु प्रदान करें,
धरती का ताप घटातें हैं,

मानव को वो औषधि देते,
फूलों को देते लाली,
पर्वत को वो देते अम्बर,
झरनों को देते पानी,

कवियों को वो कविता देते,
ऋषियों को देते सिद्धी,
संस्कारों का उद्गम हैं वो,
संस्कृति है उनकी थाती,

नहीं बचेगा अगर वृक्ष तो,
धरती फिर हरी नहीं होगी,
वायु  बनेगी अधिक विषैली,
जीवन - वायु नहीं होगी,

बादल भी न पानी देगा,
नदियाँ भी सूखी होंगी,
धरा हुई जो नग्न कहीं तो,
जीवन आस नहीं होगी,

ऐ धरती के श्रेष्ठ सपूतो,
धरती की लाज बचाना है,
वृक्ष- चीर का कर संरक्षण,
जीवन हमे बचाना है,

                          -    डॉ सुधीर कुमार शुक्ल " तेजस्वी"

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