मंगलवार, 6 मार्च 2012

गुलिस्तों के उजड़ जाने से मैं डरता हूँ





छुपाया था जिन्हें जिगर में साँसों की तरह,
सिगार का धुआं बन जायेंगे इल्म न था 
रहते थे जिस जगह, मालिक बनकर 
आशियाने को जला डालेंगे इल्म न था 

पता था कालिख तो लगेगी मगर,
हश्र- ए- इखलास मालूम न था, 
जलने का डर तो परवाने को भी था,
शम्मा इतनी बेरहम होगी मालुम न था,

आँखों में अश्क की तरह सजाया था,
तेज़ाब बन जायेंगे मालूम न था ,
जिन पलकों में बसते थे आठों पहर,
ख्वाब को खाक कर देंगे मालूम न था,

जिगर के टुकड़ों को समेट कर बैठा हूँ 
मासूम पलकों में तेज़ाब सहेज कर बैठा हूँ,
कह दूं ज़माने से किस्सा उनकी बेवफाई का,
उनके बेआबरू होने से मैं डरता हूँ,

अपनी बर्बादी का तो ग़म नहीं यारो,
उनकी बदनामी से मैं डरता हूँ,
गुलों में कांटो का जख्म न जान ले कोई,
गुलिस्तों के उजड़ जाने से मैं डरता हूँ,

                                           - डॉ. सुधीर कुमार शुक्ल " तेजस्वी"  

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