आये थे उनके दर पे ढूढने सुकून,
मालूम न था होश खो बैठेंगे,
एक ख़ुशी की ही इल्तजा थी,
मालूम न था रास्ते बेवफा निकलेगे,
उनके तबस्सुम पे जान छिड़कते चले,
उनके ग़मों को दामन से लपेटते चले,
उम्र भर साथ चलने का वादा था उनसे,
मालूम न था यूँ हौसला खो बैठेगे,
बिना बारिस के ये कैसी है बाढ़ आई,
मेरे लिए कब वो गम की सौगात लाई,
हम तो खड़े थे किनारे पे उनका हाथ थामे,
हाथ तो न छूटा, न जाने कैसे साथ छूटा,
न वो हैं बेवफा न हम ही हैं,
साथ चलने की आरजू भी है,
कुछ कदम भी न चल सके फिर भी,
थक कर चूर हो चुके वो भी,
ये खुदा की है मर्जी या जिन्दगी का फ़साना,
यूँ लोगों का करीब आके दूर जाना,
ये कैसा है जूनून, कैसा है नजराना,
मेरे रहनुमा अब तो तेरा ही है सहारा,
-डॉ. सुधीर कुमार शुक्ल "तेजस्वी"