गुरुवार, 7 मई 2015

जिंदगी यूँ ही खर्च दी !


कुछ तुमने बेंचा, कुछ हमने ।  
ये जिंदगी, कुछ यूँ ही खर्च दी।।    

बड़ा गुमान था, खुद पर हमे।  
नीलामी में कौड़ी, भी न मिल सकी ।। 

ठोकरों से दिया था, जवाब मैंने।  
चाहने वालों ने जब भी, मेरी इल्तज़ा की ।। 

नसीब में बेकदरी थी, मेरे मौला।  
खरीदार को, कद्रदान समझने की, भूल करदी।। 

कितने जतन से सींचा था, बागवान ने। 
राहगीरों ने आके, पूरी बगिया उजाड़ दी ।। 

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