रविवार, 30 दिसंबर 2012

मैं तो रोज मरती हूँ !



मैं तो रोज मरती हूँ, हर पल मरती हूँ 
जन्मसे पहले, माँ की कोख में,
सहमी सी रहती हूँ, हर पल जुल्म सहती हूँ,
लड़की हूँ इस लिए घुट- घुट कर जीती और मरती हूँ  

पिता ने रोज मारा , भाई ने पल, पल,
पति ने तो मारा ही, माँ ने भी न छोड़ा,
घर के एक कोने में, विद्यालय के कमरे में,
बगीचों और गलियों में, दिन भर मैं मरती हूँ,

हुसैन के चित्र में, कवियों के कलम से,
फिल्मों की हवस में, कला के नाम से, 
बसों में, चौराहों में, पत्थर की चौखटों 
अजनवी की नजरमे, मैं ही तो मरती हूँ,


मैं मरती हूँ क्योंकि मैं सहती हूँ,
मैं मरती हूँ क्योंकि मैं जननी हूँ,
मैं मरती हूँ क्योंकि मैं धरती हूँ,
मैं मरती हूँ क्योंकि मैं लड़की हूँ,

मैं तो  सबला थी, अबला बनाया तूने,
मैं तो दुर्गा थी, दामिनी बनाया तूने,
मैंने तुझे जनम दिया, तूने मुझे फांसी,
मैंने तुझे पय दिया, तूने मुझे आंसू 

मैं माँ हूँ, ममता हूँ, कोई वस्तु नहीं,
मुझ से ही तुम हो, मैं सृजक हूँ,
मैं तेरी आत्मा हूँ, सुचिता हूँ,
मैं तेरे ही भीतर का प्राण हूँ, 

तेरा अस्तित्व ही मुझसे हैं, तुझे समझना होगा,
मैं जगत का प्राण हूँ, तुझे समझना होगा,
मुझसे ही ये संसार है, तुझे समझना होगा,
मैं नहीं, तो तू भी नहीं, तुझे समझना होगा, 

जब तेरी कलुषित आंखे, मेरा चीर हरण करती हैं,
तेरी माँ, तेरी आत्मा का भी, बलात्कार करती हैं,
तेरे ईश्वर, तेरे पिता का भी बलात्कार करती हैं,
इस प्रकृति, धरती का भी बलात्कार करती हैं,  


मैं मरती रहूंगी शायद तबतक,
ये सब सहती रहूंगी जबतक,
तेरे अन्दर दुशासन हैं जबतक,
धृतराष्ट्र, भीष्म चुप हैं जबतक,

मार दे सबको, पोछ दे मेरे आंसू,
मेरे सब्र का बांध गर टूट गया,
महाभारत सा सैलाब आएगा,
तुम सबको खंड-खंड कर जायेगा,   

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