सोमवार, 23 जुलाई 2012

निर्धन है अब धरा बिचारी



निर्धन है अब धरा बिचारी,
जलधर भी अब निर्जल है,

कंठ सूखता झरनों का अब,
नदिया भी अब मरुथल है,

डाबर सूख गया है ऐसे,
पथराई सी आँखें हों,


लहू लुहान पड़े हैं तरुवर,
लता बिचारी बिह्वल है,

रुदन कर रहा आज हिमालय,
सागर भी अब व्याकुल है,


जीव, जंतु सब झुलस रहे हैं,
अंगारों का ये युग है,

एक भगीरथ हुए कभी थे,
जल को धरती लाये थे,

भारत भूमि को स्वर्ग बनाने,
गंगा लेकर आये थे,

बहती थी जहाँ अविरल धरा,
अमृत- सलिल छलकते है,

कलरव करते थे जहाँ पंछी,
झरने नर्तन करते थे,

गंगा माता, धरती माता,
शिला, पेंड भी पूजते थे,

उस महान भारत की संतति,
क्यों है इतनी पतित हुई,


अपने हवास बुझाने खातिर,
कैसे पथ से भ्रमित हुई,

हमने धरती का तन छेंदा,
उसने हाहाकार किया,


पेट फाड़ कर उस माता का,
ग्रास भ्रूण का कर डाला, 

अपने ओछेपन  के खातिर,
नदियों का संघार किया,

तरनी का तन भर कर मल से,
जल प्रवाह को बंद किया,

गंगा, यमुना या कावेरी,
सब का हमने ग्रास किया,


उद्योगों का दूषित कचरा,
सब नदियों में पाट दिया,

जो नदियाँ हैं जीवन देती,
हमने है क्या हाल किया,

माता कहते हैं हम जिसको,
गला घोट कर मार दिया,

आज गिर गए हम इतने की,
जननी का बलात्कार किया,

हमसे तो  बेहतर वो खर हैं,
जो बुद्धि हीन कहलाते हैं,

नहीं दिया है घाव प्रकृति को,
भले पशु कहलाते हैं,

अगर रुकेंगे नहीं अभी भी,
शोषण करते जायेंगे,

दूर नहीं है वो दिन जब, सब,
जल विहीन मर जायेंगे, 

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