मंगलवार, 5 जून 2012

एक बृद्ध वृक्ष का आह्वान



मैं हँसता था, मुस्काता था,
यूँ ही रोज बढ़ा जाता था,

जीवन के गाने गता था,
झरनों में मैं इठलाता था,

नहीं मुझे थी कोई जरूरत,
नहीं मुझे थी कोई शिकायत,

तभी एक दिन मानव आया,
मैंने अपने घर बैठाया,

था वो मानव बड़ा लालची,
था वो बड़ा क्रूर, अभागी,

मेरे कोमल तन को कटा,
बालापन में ही था छांटा,

हुआ तरुण तब चली कुल्हाड़ी,
हाथ पैर में आग लगा दी,

मेरे तन को उसने कटा,
लकड़ी मैंने उसको बँटा,

मारा तुने जब-जब पत्थर,
बदले में देता मैं तब फल,

नहीं दिया तुने कभी भी पानी,
फिर क्यूँ करता था मनमानी,

मेरे बच्चों को भी मारा,
उनके तन का लहू निकला,

तुने कितनी की गुस्ताखी,
तन तो क्या, मेरी जड़ भी काटी,

तुने सारी सीमा तोड़ी,
फिर भी मैंने हार न मानी,

कभी अगर तू थक कर आता,
आश्रय दे तेरी थकन बुझाता,

प्राण वायु तुझे मुझसे मिलती,
नदियाँ हैं जल मुझसे लेती,

सयंमित मैं जलवायु को करता,
ऋतुओं का संचालन करता,

तेरा जीवन मुझपे निर्भर,
फिर तू है क्यों इतना निःहृदय,

आज मुझे हैं आँसू आते,
तेरे जीवन पर है संकट,

अगर मिटेगा मेरा जीवन,
नहीं है मानव तेरा जीवन,

आज अभी से तज नादानी,
मानवता है तुझे बचानी,

कर तू वृक्षों का संरक्षण,
दूंगा मैं तुझे अविरल जीवन,

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