मैं मैली हूँ इस लिए चारो तरफ फैली हूँ,
स्वच्छ होती तो न बिखरने देता कोई,
पैरों के नीचे यूँ ही न मसलता कोई
सड़क में फ़ैल कर न सिसकने देता कोई,
ये चक्र है समय का, नसीब का और कर्त्तव्य का,
कभी मैं भी बाग़ में सवरती थी,
शबनमी ओस संग रोज चहकती थी,
हर रात चाँद संग अठखेलियाँ करती थी,
सूरज की धूप आके जगती थी मुझको,
कोयल रोज संगीत सुनती थी मुझको,
माली आकर मेरी जुल्फें सवारता था,
नहलाकर मेरा श्रृंगार करता था,
मेरे दामन से जब खुशबू आती थी,
सब
की आखों में आस दे जाती थी,
सब धरती माँ पुकारते थे मुझे,
क्योंकि मैं जीवन देती थी,
आज भी मैं वही हूँ किन्तु पैरों तले गाड़ी हूँ,
रास्ता जो भटक गई थी,
बाग़ से सड़क पर आगई थी,
अपनी जड़, अपनी पहचान खो गई थी,
नहीं था जीवन श्रोत मुझमे,
नहीं था किसी को प्यार मुझसे,
सोंधी खुशबू, सड़ांध में में बदल गई थी,
मिट्टी अब कीचड़ बन गई थी,
-डॉ सुधीर कुमार शुक्ल "तेजस्वी"
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