मंगलवार, 18 नवंबर 2014

धोये फिर से रगड़ के हाथ !


हम तो धोते थे, रगड़-रगड़ धोते थे,
खाने के पहले, और शौच के बाद भी धोते थे, 

गाँव के जो थे, धोने में शर्म नहीं आती थी,
माँ ने सिखाया था, बचपन से खूब धुलाया था,

फिर शहर गए, पढ़े लिखे, और धोना भूल गए,
धोने को शर्म, न धोने हो फैशन मान गए,

एक लड़की जो मिली थी, शहर में पली थी,
फैशन की थी किताब, न धोये वो कभी मुँह- हाथ,

पहली मुलाक़ात थी, रेस्तराँ में साथ थी,
आर्डर दे कर मैं गया गुसलखाने, हाथ जो धोने थे,

समझ कर वो मुझे बैकवर्ड, खिसक ली बगलवाले के साथ, 
एक नहीं, बारहा ये हुआ हाल, तब समझा मैं इसका राज 

एक बार वही रेस्तरां, पर नयी  लड़की,
बिना हाथ धोये, हमने भी किया श्रीगणेश,

लड़की हुई खुश, समझा मुझे एडवांस,
फॅमिली का प्लान ही कर रहा था, हुई एक अजीब बात, 

पास लगी स्क्रीन पर, बच्चों के हाथ धुलवाने का विज्ञापन, 
देख विज्ञापन मैं हुआ उदास, आई फिर माँ की याद, 

उठा गिलास, गरारे किये और धोये फिर से रगड़ के हाथ,
लड़की ने भी किया अनुग्रह, धोये उसने रगड़ के हाथ , 

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