(ऐय्याश अखिलेश और उसके द्वारा प्रायोजित दंगो के सैफई महोत्सव को समर्पित )
आंसुओं को, काली घटा समझते रहे।।
कितने बेपीर होते हैं, ये हुक्मरान।
मेरी मौत पे भी, वो जश्न करते रहे।
एक तरफ हुस्न था, मदमाती रात थी।
एकतरफ सहमी, ठिठुरती, अँधेरी रात थी।।
वो हुस्न कि गर्मी में पिघलते रहे।
हम ठण्ड से ठिठुरते, दर्द से मरते रहे ।।
मेरे बच्चे जब, भूख से तड़प रहे थे।
वहाँ कबाब, और शराब छलक रहे थे।।
ये कुदरत की मर्जी तो नहीं, तेरा गुरूर था।
वरना एक खपरैल, एक आँगन मेरा भी था।।
बेघर की पीर, एक सँपोला क्या जाने।
पंछी से पूंछ, जिनके घोंसले उजड़ गए ।।
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