बुधवार, 11 सितंबर 2013

लाशों का ये खेल !




सत्ता का ये नाच, न जाने कभी थमेगा। 
बन बैठा  जो  काल, ये राजा कभी मिटेगा।।

बदलेगा तो बिलकुल, लेकिन कब बदलेगा।
त्रस्त हुए हैं लोग, राष्ट्र भी व्याकुल है अब।।  

भाई बना है काल, पडोसी दुश्मन है अब।  
कुर्सी का है खेल, मेल जाने कब होगा ।।

लाशों का ये खेल, न जाने कभी रुकेगा। 
सत्ता की ये हवस, न जाने कभी मिटेगी।।

खून बहा जो आज, न जाने कब सूखेगा।
भेड़ियों का ये राज, न जाने कब टूटेगा।।

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