बुधवार, 17 दिसंबर 2014

आप बीती !


कल रात से मेरे पिता जी को उल्टी- दस्त हो रहा है, वो पहले से उच्च रक्त चाप और मधुमेह के रोगी है, उनकी उम्र ७३ साल के लगभग है, इस संकट की अवस्था में उनके पास मेरी बूढी माँ के अलावा कोई नहीं है।  मैं उनका इकलौता बीटा अपने स्वार्थ की वजह से उन्हें यहाँ विदेश में पड़ा हुँ।  आज सवेरे मेरे भांजे का पहन आया जोकि मेरे घर से ६०० किमी दूर रहता है, सौभाग्य से वो पाने घर आया था जोकि मेरे घर से ३० किमी है।  उसने संकोच करते हुए मेरे पिता की तबिया के बारे में बताया, संकोच इस लिए की मेरी माँ ने उसे मुझसे ये बात बताने से माना किया था, उन्हें अपने बृद्ध पति की तबियत से ज्यादा अपने बेटे के दुःख की चिंता थी।  जैसे मुझे पता चला, मैंने घर फ़ोन लिया।  फ़ोन में जानी पहचानी- आवाज थी, पर घबराहट की वजह से मैं सही ढंग से समझ नहीं सका।  मैंने अपना,  घरका नाम बताते हुए पुछा आप कौन बोल रहे हैं, दूसरी तरफ से आवाज आई।  मैं लवकुश ( मेरे पडोसी) बोल रहा हूँ।  लाला ( मेरा घर का  नाम ) तुम परेशान नहीं होना , यहाँ सब ठीक है , हम लोग हैं यहाँ पे, बाबूजी ( मेरे पिता जी ) को अस्पताल (अस्पताल ३० किमी दूर है ) ले जा रहे हैं।  कोई चिंता की बात नहीं है।  मैंने कहा माँ से बात करनी है, माँ ने फ़ोन लिया, बोली बीटा तुम परेशान नहीं होना यहाँ सब ठीक है , ( मैं अपने सहकर्णी के साथ लैब में एक्सपेरिमेंट कर रहा है ) यह सुनकर मेरे आंसू आगये, इस लिए नहीं की मेरे पिता की तबियत ठीक नहीं है पर इसलिए की मेरी माँ को अभी भी मेरी चिंता है, की मैं कहीं परेशान न हो जाऊं।  मैंने कहा बाबूजी से बात करनी है , वो शायद बाबूजी के कान के पास फोन ले गई, बाबू जी के कराहने की आवाज आरही थी, वो बात नहीं कर पा रहे थे, मुझे एक स्वार्थी पुत्र की तरह ये तसल्ली थी की बाबूजी कराह सकते हैं, मतलब !!!  मैं लिख नहीं सकता , आप खुद समझ सकते हैं। 
मैंने अपनी माँ से पडोसी को फ़ोन देने के लिए कहा।  पडोसी फोन लेते हुए, लाला तुम परेशान नहीं होना, चिंता की बात नहीं है , कल रात से तबियत ठीक नहीं थी, तो पहले पास के डॉक्टर को दिखाया, फिर सोचा रिक्स ( रिस्क, ज्यादा न पढ़े होने की वजह से वो रिस्क को रिक्स बोलते हैं ) क्यों लें, बड़े अस्पताल में दिखा दें।  तुम्हारी दीदी को भी फोन कर दिया  है वो वहीँ अस्पताल में पहुँच जायेगी।  सब ठीक हो जायेगा।  

मैं उनका आभार तक व्यक्त करने की स्थिति में नहीं था, मुझे बस लग रहा था, उस पडोसी से गले लग कर रोऊँ , उसके पैर पडूँ, (एक बात और, बात एक पडोसी ने की थी, परन्तु वहां लगभग पूरा गाँव इकठ्ठा था, सिर्फ उनके स्वार्थी बेटे के) . फिर फ़ोन कट गया।  मैंने २-३ फोन और किये, काम करने का मन नहीं हो रहा था, अपनी कुर्सी पे बैठ गया।  

मुझे महशूस हुआ, गाँव कितना अच्छा है, यहाँ एक लोग अनपढ़ , असभ्य ( तथाकथित ) ही सही पर यहाँ एक आदमी की तबिया ख़राब हो जाती है, पूरा गाँव  इकठ्ठा हो जाता है।  अपना सबकुछ लगा देते हैं उसकी मदद करने के लिए।  और हम तथाकथित सभ्य, पढ़े-लिखे, विचारक, प्रगतिवादी, शहरी  लोग अपने बाप तक की सेवा नहीं कर सकते।  हाँ मौक़ा मिलने पर इन भोले-भालो लोगों को  मवेशी- गँवार आदि - आदि विशेषणों से आभूषित कर अपनी विधाता झाड़ते है।  

मुझे तो यह बात समझ में आगई।  आपभी सोचिये शायद आपको भी आ जाय। नहीं तो कभी गाँव के लोगों को उनकी वेशभूषा, रहन-सहन से ऊपर उठकर देखिये, आपको खुद पर शर्म आएगी। 
( अभी भी मुझे मेरे पडोसी को पहन करना है, क्योंकि मुझे जैसे स्वार्थी बेटे के पिता जी अभी भी अस्पताल में भर्ती हैं।) 

दुआ करिये !   

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